ज़िन्दगी उलझा कर रखेगी कब तक
छोटी सी है खुद हीं , बहकाकर रखेगी कब तक ।
नाज़ इसको इतना है खुद पर
बहक जाता हूँ जो मैं कभी
तो कितना इतराती है खुद पर
बात बनती नहीं कि बिगाड़ देती है तब तक।
ज़िन्दगी उलझा कर रखेगी कब तक
छोटी सी है खुद हीं , बहकाकर रखेगी कब तक ।\
इठलाती ,मंडराती ,झूमती,है ये चारों पहर
जो निराश हो जाता हूँ मैं कभी ,
तो अहंकर भरी आंखे मिच जाती है ,मुझ पर ।
आस कहीं बंधती नही कि तोड जाती है तब तक
ये कमर जो लचकाती है, उछल कर जो जाती है,
न जाने बिजली गिरायी किधर।
जो थोडा सा हारता हूँ ,मैं कभी
तो ठुमके के जोड़ से गिरा देती है जमीं पर।
हासिल कुछ होता नहीं कि ,
हासिये पर हीं ला देती है तब तक।
ज़िन्दगी उलझा कर रखेगी कब तक
छोटी सी है खुद हीं , बहकाकर रखेगी कब तक
गाती गुनगुनाती जो कूदती है इधर से उधर
जो खीझकर चाहा कि रिश्ता हीं तोड़ दूँ ,में कभी ,
तो अपने बंधन का अहसास करा गई दिल पर।
रिश्ता जो बना संजो हीं नहीं सका मैं ,
कि कई रिश्ते तोड़ गई अब तक।
जिंदगी उलझा कर रखेगी कब तक ,
छोटी सी है खुद ही , बहकाकर रखेगी कब तक\।
heart touching.
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